दो महिला प्रोफेसरों को अकेलापन ले लाया वृद्धाश्रम

दो महिला प्रोफेसरों को अकेलापन ले लाया वृद्धाश्रम

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जिस घर में बचपन और जवानी बीती, उसी घर में जब बुढ़ापा आया तो बच्चों से सामंजस्य बिठा पाना मुश्किल हो गया। धीरे-धीरे अपने ही घर में अकेलापन सताने लगा। इस अकेलेपन को दूर करने के लिए उन्हें ऐसी जगह की तलाश थी जहां दोस्तों संग बतिया सकें, अपने दिल की बात कह सकें, ठहाके मार सकें।

बस, इसी तलाश में कदम वृद्धाश्रम की तरह चल पड़े। शहर के वृद्धाश्रमों में रह रहे ज्यादातर बुजुर्गों की यही कहानी है। कोई अपने परिवार को बताए बगैर यहां चला आया तो किसी को मजबूरी में यहां आना पड़ा। आदिलनगर के समर्पण वरिष्ठ जन परिसर में ऐसी बहुत सी कहानियां हैं। हमने ऐसी कुछ बुजुर्गों से जानी उनकी राम कहानी।

मेरे भाई को मेरा यहां रहना पसंद नहीं

आदिलनगर के समर्पण वरिष्ठ जन परिसर से डॉ. रीता सिंह ने बताया कि मैंने एमएससी के बाद पीएचडी की है। मैं प्रोफेसर के पद से रिटायर हूं। मेरे साथ यहां रहने वालों में से बिल्कुल अलग हुआ। मैं चौक की रहने वाली हूं। मेरे परिवार में भाई के अलावा कोई भी नहीं है। धीरे-धीरे जब सभी गुजर गए तो मैंने फैसला लिया कि मैं अब वृद्धाश्रम में रहूंगी। हालांकि, भाई अब भी कहता है कि आप वहां मत रहिए क्योंकि मुझे बुरा लगता है। लेकिन मुझे स्वतंत्रता के साथ जीना अच्छा लगता है। जब मुझे लगा कि मैं ही भाई के साथ नहीं रह सकती हूं तो यहां चली आई।

नए दोस्तों संग मिली जीने की नई राह

आदिलनगर के समर्पण वरिष्ठजन परिसर से ही 76 वर्षीय डॉ. उषा दीक्षित ने बताया कि मैंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए-पीएचडी किया है। मैं बटलर रोड की रहने वाली हूं। मैं प्रोफेसर के पद से रिटायर हूं। मेरी दोनों बेटियां अच्छी नौकरी में हैं। एक डॉक्टर तो एक इंजीनियर है। मैं वृद्धाश्रम में नौ साल से हूं। 2015 में मेरे पति के गुजर जाने के बाद जैसे मेरे ऊपर पहाड़ टूट पड़ा और मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं, कहां चली जाऊं। फिर एक दिन भटकते हुए यहां के बारे में पता चला तो बिना किसी को बताए यहां चली आई। यहां आकर जीने की नई राह मिली और नए-नए दोस्त जिन्होंने संभाला और परवाह व सुरक्षा का अहसास कराया।