मोदी सरकार ये बजट युवाओ को कितना दिल पाएगी रोजगार?

मोदी सरकार ये बजट युवाओ को कितना दिल पाएगी रोजगार?

-:विज्ञापन:-

लगातार तीसरी बार चुनाव जीत कर सत्ता में आई मोदी सरकार के बजट पर विश्लेषणों का दौर जारी है.

बजट विशेषज्ञ,अर्थशास्त्री और आर्थिक मामलों के पत्रकार हर पहलू से बजट की बारीकियां समझा रहे हैं.

लेकिन सबसे ज़्यादा ज़ोर बजट की तीन बड़ी घोषणाओं पर है.

दो बड़े एलान भारतीय अर्थव्यवस्था की दो बड़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए किए गए हैं.

तीसरा एलान सरकार की राजनीतिक मजबूरी की ओर इशारा कर रहा है. शायद इसी मजबूरी की वजह से बजट में बिहार और आंध्र प्रदेश को विशेष वित्तीय मदद दी गई है.

मोदी सरकार की स्थिरता के लिए बिहार के सीएम नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडू का समर्थन कितना ज़रूरी है, इसे सब जानते हैं.

बजट के मुताबिक़ सरकार नौकरियां बढ़ाने और कामकाज़ी लोगों के कौशल विकास के लिए पाँच स्कीमों में दो लाख करोड़ रुपये खर्च करेगी.

सरकार ने जिस तरह से अपने पिछले कार्यकाल में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए पीएलआई (प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव) स्कीम का एलान किया था, उसी तरह इस बार रोज़गार बढ़ाने के लिए 'ईएलआई' (एम्पलॉयमेंट लिंक्ड इन्सेंटिव ) का एलान किया है.

दूसरा बड़ा एलान टैक्स पेयर्स के लिए था. हालांकि भारत की लगभग 140 करोड़ की आबादी में से सिर्फ़ दो से ढाई करोड़ लोग टैक्स देते हैं, लेकिन उन्हें इस बार थोड़ी राहत दी गई है.

देश में जिस तरह से महंगाई का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसकी वजह से चीज़ों की खपत में जो गिरावट दिखी है, उसमें सरकार को ये करना ही था.

ये अलग बात है कि सिर्फ़ दो-ढाई करोड़ लोगों को टैक्स राहत देकर सरकार वस्तुओं और सेवाओं की मांग कितना बढ़ा लेगी.

विश्लेषकों का कहना है अच्छा होता अगर सरकार अप्रत्यक्ष टैक्स में राहत देती जो बाक़ी के 138 करोड़ लोगों के लिए राहत का सबब बनता.

रोज़गार के लिए पहल कितनी कारगर?

लोकसभा चुनावों ने ये साफ़ कर दिया था कि रोज़गार का मुद्दा निर्णायक साबित होगा.

मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा करती आई थी लेकिन ये कभी पूरा नहीं हो पाया.

विश्लेषकों का मानना है कि नोटबंदी, जीएसटी की खामियों और कोविड से पैदा दिक्क़तों की वजह से सरकार का ये वादा धरा का धरा रह गया.

लेकिन सवाल ये है कि इस बार रोज़गार को लेकर जो एलान किए गए हैं वो बेरोज़गारी को दूर करने में कितना कामयाब हो पाएंगे.

भारत में रोजगार की स्थिति पर बारीक नज़र रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है देश में नौकरियां बढ़ाने के लिए बड़े बुनियादी क़दम उठाने होंगे.

नौकरियां बढ़ाने के लिए बजट में जो एलान किए गए हैं, उनके मुताबिक़ पहली बार नौकरी हासिल करने वाले कर्मचारियों को एक महीने की सैलरी सरकार उनके बैंक खाते में ट्रांसफर करेगी. यानी इससे उन्हें नौकरी देने वाली कंपनियों पर भार कम पड़ेगा. इससे वो नौकरियां देने के लिए प्रोत्साहित होंगी.

यह राशि तीन किस्तों में ट्रांसफर की जाएगी जो अधिकतम 15,000 रुपये तक होगी. इस स्कीम से फायदा 30 लाख युवाओं को मिलने का अनुमान है.

लेकिन आर्थिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन ने से बातचीत में कहा कि सिर्फ़ इन्सेन्टिव देने से रोज़गार नहीं बढ़ेंगे.

उन्होंने कहा,''कोविड के बाद अर्थव्यवस्था में रिकवरी और रोज़गार बढ़ाने के लिए उद्योगों को ख़ासा टैक्स इन्सेन्टिव दिया गया था ताकि वो लोगों को नौकरियां दें. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उद्योगों ने अपना विस्तार नहीं किया. क्योंकि कोविड और उसके बाद देश में मांग काफ़ी कम हो गई थी. उद्योगों को लगा कि उनका निवेश फंस जाएगा इसलिए फ़िलहाल पैसा न लगाया जाए. ऐसे में रोज़गार कहां से बढ़ता.''

सुषमा रामचंद्रन कहती हैं, ''ये रोज़गार बढ़ाने के शॉर्ट टर्म उपाय हैं. इससे बात नहीं बनेगी. रोजगार बढ़ाने के लिए मैन्युफैक्चरिंग का दायरा बढ़ाना होगा. एजुकेशन और कौशल विकास और हेल्थकेयर पर बड़ा निवेश करना होगा. ये बुनियादी क़दम हैं. इनके बग़ैर बड़े पैमाने पर रोज़गार पैदा करना मुश्किल हैं.'

सुषमा रामचंद्रन ने कहा कि सरकार ने विदेशी कंपनियों का टैक्स तो घटा दिया है लेकिन इज ऑफ डुइंग बिजनेस यानी उनके लिए बिज़नेस आसान बनाने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया.

उनका कहना है कि सिर्फ़ टैक्स घटाने से वो वो यहां अपने कारखाने नहीं लगाएंगे. इसके लिए सरकार को 'रेगुलेटरी कोलेस्ट्रॉल' को घटाना होगा.

यानी छोटे-छोटे क्लीयरेंस की अड़चनों को ख़त्म करना होगा. तभी ये कंपनियां यहां प्लांट लगा कर लोगों को रोज़गार देंगी.

महंगाई, मध्य वर्ग और टैक्स राहत

महंगाई तो हर वर्ग के उपभोक्ताओं को परेशान करती है. लेकिन सबसे ज़्यादा असर ग़रीबों पर पड़ता है. सरकार ने प्रत्यक्ष कर में कटौती कर थोड़ी सी राहत सिर्फ़ मध्य वर्ग को दी है. इसका ज़्यादा लाभ उन लोगों को होगा जो नौकरी वाले हैं

इसके पीछे सरकार की सोच ये है कि मिडिल क्लास ही सबसे ज़्यादा चीज़ों का उपभोग करता है और उसके हाथ में पैसा बचेगा तो वो ख़रीदारी करेंगे और वस्तुओं की सेवाओं की मांग बढ़ेगी. इससे अर्थव्यवस्था में और रफ़्तार आएगी और रोज़गार बढ़ेगा.

लेकिन राजनीतिक और आर्थिक मामलों के विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, ''सरकार ने दो-ढाई करोड़ टैक्स पेयर्स को छोड़ कर उन लोगों के लिए कुछ नहीं किया जो अप्रत्यक्ष कर के तौर पर पर टैक्स देते हैं. अगर सरकार ने वस्तुओं और सेवाओं पर टैक्स कम किया होता तो सबको फ़ायदा मिलता. एक बड़े उपभोक्ता वर्ग के हाथ में पैसा बचता. इससे अर्थव्यवस्था में मांग ज़्यादा बढ़ती.''

जहां तक महंगाई का सवाल है तो वित्त मंत्री ने कहा भारत में महंगाई कम और स्थिर है. साथ ये ही चार फ़ीसदी लक्ष्य की ओर बढ़ रही है. यानी ये रिजर्व बैंक के निर्धारित लक्ष्य के दायरे में जा रही है.

यानी महंगाई को लेकर सरकार को ज्यादा चिंता नहीं लेकिन खाद्य महंगाई लगातार तेज़ी से बढ़ रही है. दाल, तेल, आलू, टमाटर जैसी रोजमर्रा के खाने-पीने की चीज़ों की महंगाई लगातार बढ़ी है.

वित्त वर्ष 2022-23 में खाद्य महंगाई दर 6.6 फ़ीसदी थी जो मौजूदा वित्त वर्ष में आठ फ़ीसदी की ओर जाती दिख रही है. लेकिन सरकार इसके लिए यूक्रेन युद्ध जैसे बाहरी कारणों और देश में कमज़ोर मॉनसून को ज़िम्मेदार ठहरा रही है.

सुषमा रामचंद्रन कहती हैं कि महंगाई के मोर्चे पर कोई भी सरकार ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती. सरकार किसानों के हितों की अनदेखी नहीं कर सकती.

किसानों को उनकी फसलों की अच्छी क़ीमत नहीं मिलेगी तो वो उपज घटा देंगे और इससे चीज़ों की सप्लाई घट जाएगी. ये महंगाई के एक नए दुश्चक्र को जन्म दे सकती है.

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी एंड फाइनेंस में प्रोफेसर एनआर भानुमूर्ति कहते हैं, ''महंगाई पर नियंत्रण के मामले में कोई भी सरकार ज़्यादा कुछ नहीं कर पाती. आजकल खेती पर जलवायु परिवर्तन का असर दिख रहा है. साथ ही अंतरराष्ट्रीय सप्लाई में भी दिक्क़तें आ रही हैं.''

''जैसे रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से तेल के तेल और गैस के दाम बढ़ गए थे.अनाज और तिलहन की सप्लाई भी बाधित हुई थी. इससे पूरी दुनिया में महंगाई बढ़ गई थी. सरकारों को इन हालात से तालमेल बिठा कर महंगाई से जुड़ी नीतियां तय करनी होगी.''

'मज़बूत नहीं मजबूर सरकार का बजट'