पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित का ब्लॉग- भारत में गणित का विकास और शून्य का अविष्कार
रिपोर्ट-रोहित मिश्रा
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भारत में गणित का विकास वैदिककाल में ही हो रहा था। ऋग्वेद में इसके साक्ष्य हैं। लेकिन अंग्रेजी सत्ता के प्रभाव व अन्य कारणों से कुछ विद्वानों का मत भिन्न है कि प्राचीनकाल में भारतवासियों को शून्य की जानकारी नहीं थी। शून्य गणित का मुख्य अंक है। ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका‘ में कहा गया था कि शून्य के अंक का अविष्कार संभवतः हिन्दुओं ने किया था। शून्य और शून्य के स्थानगत मूल्य की जानकारी भी वैदिककाल में थी। 1 से 10 अंकों के प्रतीक ‘‘अधिकतर भारत में उत्पन्न हुए। अरबों ने उनका व्यापक प्रयोग किया। उन्हें हिन्दू अरेबिक अंक कहा जाता है।‘‘ (वही) दशमलव पद्धति दुनिया के लिए भारत का उपहार है। डा० रामविलास शर्मा ने ‘भारतीय नवजागरण और यूरोप‘ (पृष्ठ 333) में लिखा है, ‘‘शून्य का अविष्कार, स्थान के अनुसार शून्य के प्रयोग द्वारा अंक की मूल्य वृद्धि भारतीय प्रतिभा का चमत्कार है।‘‘ गणित विज्ञान का आधार है। ज्योतिर्विज्ञान का पूरा तंत्र गणित आधारित है। सामान्य जीवन में भी गणित का उपयोग है। गणित भारत में फली फूली। प्रत्येक भारतवासी को इसका गर्व होना चाहिए।
भारत में गणित के विकास के सम्बंध में एस० एन० मेन ने लिखा था, ‘‘शब्दांक और दशमिक स्थानगत मूल्यव्यवस्था में उनका व्यवहार एक अन्य अपूर्व भारतीय विकास है। विशाल परिमाण की संख्या सामग्री को पद्यबद्ध गणितीय ग्रंथों में समेट लेने के लिए यह पद्धति निर्मित हुई थी। अंकों से उनके संसर्ग के अनुसार शब्द नाम चुने जाते थे।‘‘ ऋग्वेद में गणित न होने अथवा शून्य की जानकारी न होने के तर्क गलत हैं। ऋग्वेद के ‘पुरुष‘ पर ध्यान देना चाहिए। पुरुष सूक्त के प्रारम्भ में पहला शब्द है – सहस्त्र शीर्षा। पुरुष के सहस्त्र सिर हैं। सहस्त्र गणित की संख्या है। अग्नि ऋग्वेद के महत्वपूर्ण देवता हैं। ऋग्वेद (6.2.5) में कहते हैं, ‘‘अग्नि का उपासक शतायु होता है।‘‘ यहां शत सौ का संख्यावाची है। ऋषि सौ शरद् जीना चाहते हैं – जीवेम शरदं शतम। ऋषियों को गणित का ज्ञान न होता तो सौ या सहस्त्र शब्द कैसे प्रयोग में आते? ऋग्वेद (1.164.48) में काल के लिए कहते हैं, ‘‘काल चक्र में 360 खूंटियां हैं।‘‘ ये खूंटियां वर्ष के दिन हैं। एक मंत्र (2.18.5) में इन्द्र से स्तुति है, ‘‘हे इन्द्र आप बीस और तीस घोड़ों से मेरे पास आइए। चालीस पचास, साठ और सत्तर उत्तम घोड़ों से सोमरस पीने आइए। वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक मंत्र हैं। एक मंत्र (10.33.5) में राजा के रथ में तीन घोड़े हैं। ऋषि इस रथ में बैठते हैं। राजा ऋषि को एक सहस्त्र दक्षिणा देता है। यहां तीन और सहस्त्र की संख्या अलग अलग है। ये मंत्र गणित ज्ञान के साक्ष्य हैं।
वैदिक पूर्वज गणित का सदुपयोग करते थे। गणित का ज्ञान विद्वानों तक ही सीमित नहीं था। सोम एक वनस्पति हैं। वे इसे कूट पीस कर पेय बनाते थे। ऋषि सोम के दस पात्र तैयार करते हैं। (6.20.4) सोमरस तैयार करते समय भी उनका ध्यान दस की संख्या पर है। वे सोम कूटते समय बट्टा पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। इस बट्टा को वे दस उंगलियों से पकड़ते थे। (10.94.8) उंगलियां दस होती हैं। 5 इन्द्रियां बाहर होती हैं और पांच भीतर। मनुष्य शरीर ‘‘दस इन्द्रियों वाला है।‘‘ (6.44.24) मित्र वरुण प्रतिष्ठित देवता हैं तो घर भी बड़ा होना चाहिए। इनके ‘‘भवन में एक सहस्त्र खम्भें हैं।‘‘ (2.41.5) यहां एक सुनिश्चित संख्या का उल्लेख है। ऐसे अनेक मंत्रों में गणना के लिए संख्यावाची शब्द हैं। शून्य महत्वपूर्ण है। आगे वाली संख्या किसी संख्या में शून्य जोड़ने से मिल जाती थी। एक में शून्य बढ़ाने से दस। दस में शून्य बढ़ाने से सौ। सौ में शून्य बढ़ने से सहस्त्र फिर शून्य बढ़ने से 10 सहस्त्र, नियुक्त एक लाख, प्रयुक्त 10 लाख के लिए प्रचलित थे। 4 की संख्या महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद(7.35.8) में शांति मंत्र में कहते हैं, ‘‘सूर्य, समुद्र, जल, पर्वत शांति दें, चारों दिशाएं शांति दें।‘‘ दिशाएं पहले 4 ही थी। चार को महत्वपूर्ण बताने वाले मंत्र मजेदार हैं – ‘‘उर्वशी ने पुरुरवा के साथ चार वर्ष बिताए। (10.95.16) इन्द्र से ऋषि की 4 प्रार्थनाएं हैं। (8.60.9) इन्द्र का वज्र चार धाराओं वाला है। (4.22.2) वाणी के 4 स्थान हैं। (1.164.45) ‘‘चार की संख्या का उल्लेख महत्वपूर्ण है और ऋग्वेद के कई प्रसंगों में है।
दस की संख्या महत्वपूर्ण थी। दिशाएं पहले चार थीं – सामने, पीछे, दाएं और बाएं। बाद में दिशाएं 10 हो गईं। दस दिशाओं का ध्यान उपासना का हिस्सा है। दस की संख्या का महत्व रामायण में भी है। श्रीराम के पिता राजा दशरथ थे। लंका के राजा रावण दशानन थे। ऋग्वेद में दाशराज्ञ युद्ध का उल्लेख है ही। छ की संख्या का प्रयोग कई बार हुआ है, अश्विनी देवों ने छ घोड़ों वाले रथ का प्रयोग किया (1.116.4) प्रजापति का आधा हिस्सा द्युलोक में है। उसके रथ में सात चक्र हैं, प्रत्येक चक्र में 6 अंश हैं। (1.164.12)‘‘ ऋग्वेद के ऋषि देवस्तुति करते हैं। मंत्र दृष्टा हैं। उन्हें सृजन का पुरस्कार मिलता है। एक मंत्र (8.68.14) में ऋषि के पास 6 दानदाता आते हैं।‘‘ ऋतुऐं भी 6 हैं। वैसे तीन लोकों की चर्चा ज्यादा है मगर ऋग्वेद (1.164.6) में छ लोक हैं। भारत में तमाम दर्शनों का विकास हुआ लेकिन इनकी मान्य संख्या षट दर्शन कही जाती है। योग विज्ञान में मनुष्य में छ चक्र – षट चक्र हैं। जान पड़ता है कि कुछ उपासकों के पास धनाभाव था। स्तुति है कि, ‘‘छ देवियां उसे धन दें। (10.128.5) ऋषि छ की संख्या व 10 की संख्या से सुपरिचित हैं। वे शून्य बढाकर प्राप्त होने की संख्या का प्रयोग करते हैं।
यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस के दर्शन में अंकों का विशेष महत्व है। वे भारत से प्रभावित थे। पुनर्जन्म मानते थे। भारत के विद्यालयों में उनका प्रमेय पढ़ाया जाता है – ‘‘किसी त्रिभुज के तीनों अंतः कोणों का योग दो समकोण के बराबर होता है।‘‘ भारत ने त्रिकोणमिति का विकास किया। उसे आधुनिक रूप दिया था और बीजगणित क¨ भी। भारतीय कालगणना में समय की छोटी से छोटी इकाई भी स्पष्ट है। परमतत्व के सम्बंध में उपनिषद् के ऋषियों का विचार है, ‘‘वह अणु से भी छोटा है, महत् से भी बड़ा है।‘‘ प्रश्नोपनिषद् में 6 जिज्ञासुओं के 6 प्रश्न हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् में संख्या का अतिक्रमण है, मंत्र (5.1) शुरू होता है ‘‘वह पूर्ण है, यह पूर्ण है। यह पूर्ण उस पूर्ण की अभिव्यक्ति है। पूर्ण से पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही बचता है।‘‘ भारत की अनुभूति में पूर्ण सदा पूर्ण रहता है।‘‘ यहां गणित का सौंदर्य है। गीता (8.17) में ब्रह्मा के एक दिन में 1000 युग हैं और युग इसी संख्या वाली रात्रि।‘‘ ब्रह्मा के दिन में चार युगों वाले एक हजार चक्र होते हैं। सतयुग 1728000 वर्ष, त्रेता 1296000 वर्ष, द्वापर 864000 वर्ष और कलियुग 432000 वर्ष का होता है। 9 या 9 से किसी भी संख्या का गुणनफल प्राप्त संख्या के अंकों का योग 9 ही होता है। महाभारत में 18 पर्व हैं। 1 और 8 का जोड़ 9। गीता में 18 अध्याय हैं। संतों के नाम के पहले सम्मानसूचक संख्या 108 या 1008 लगाते हैं। इनका योग भी 9 है। ज्ञान, विवेक और श्रद्धा में भी अंकगणित का प्रयोग केवल भारत में ही संभव हुआ है।