योगी आदित्यनाथ का सियासी सफ़र उत्तर प्रदेश में पार्टी के कमज़ोर प्रदर्शन के बाद किधर जाएगा? - विवेचना

योगी आदित्यनाथ का सियासी सफ़र उत्तर प्रदेश में पार्टी के कमज़ोर प्रदर्शन के बाद किधर जाएगा? - विवेचना

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2019 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को मिली भारी सफलता की कहानी 2024 में नहीं दोहराई जा सकी.

उत्तर प्रदेश में बीजेपी से कहीं ज़्यादा लोकसभा सीटें समाजवादी पार्टी ने हासिल कीं और कई अहम सीटों पर बीजेपी को हार का मुँह देखना पड़ा.

उत्तर प्रदेश में बीजेपी के इस फ़ीके प्रदर्शन को लेकर कई सवाल खड़े हुए लेकिन जो सबसे बड़ा सवाल उठा वो ये कि इसका योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक करियर पर क्या असर पड़ेगा.

इस साल के लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले तक और ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत हासिल करने के बाद कुछ राजनीतिक हलकों में योगी को भविष्य के राष्ट्रीय नेता के तौर पर देखा जाने लगा था. मगर अब चर्चा ये है कि राज्य में पिछली बार के मुक़ाबले भारी नुक़सान का ख़ामियाज़ा कहीं उन्हें तो नहीं उठाना पड़ेगा.

गोरखपुर मठ के महंत और वहीं से सांसद रह चुके योगी आदित्यनाथ के भविष्य पर चर्चा करने से पहले एक नज़र उनकी राजनीतिक यात्रा पर डाल लेते हैं.

इस तरह बने थे मुख्यमंत्री

बात 17 मार्च 2017 की है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज करने के छह दिन बाद तक इस बात का फ़ैसला नहीं हो पाया था कि प्रदेश का नया मुख्यमंत्री कौन होगा.

टीवी चैनलों पर कयास लग रहे थे कि मुख्यमंत्री पद की दौड़ में टेलीकॉम मंत्री मनोज सिन्हा और प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष केशव मौर्य सबसे आगे चल रहे हैं.

कई तरह की ख़बरें आ रही थीं, ये तक कहा जा रहा था कि मनोज सिन्हा मुख्यमंत्री का पदभार संभालने के लिए लखनऊ जाने की तैयारियाँ कर रहे हैं, जब केशव प्रसाद मौर्य को पता चला कि उनकी दावेदारी परवान नहीं चढ़ने वाली तो उनकी तबीयत बिगड़ गई और वे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती हो गए

परदे के पीछे चली ढेर सारी सरगर्मियों के बाद दिल्ली से उसी समय गोरखपुर लौटे योगी आदित्यनाथ के मोबाइल की घंटी बजी.दूसरे छोर पर पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह थे. उन्होंने योगी से पूछा इस समय आप कहाँ हैं? जब योगी ने कहा कि वो गोरखपुर में हैं तो अमित शाह ने कहा आप तुरंत दिल्ली आइए. योगी ने ये कहकर अपनी असमर्थता ज़ाहिर की कि इस समय दिल्ली के लिए न तो कोई फ़्लाइट उपलब्ध है और न ही ट्रेन.

अगली सुबह एक विशेष विमान से योगी आदित्यनाथ दिल्ली पहुंचे तो उन्हें हवाई अड्डे से अमित शाह के 11 अकबर रोड निवास न ले जाकर केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के निवास पर ले जाया गया. अमित शाह वहाँ योगी से मिलने आए. वहीं उन्होंने औपचारिक रूप से योगी को बताया कि उन्हें यूपी का सीएम बनना है.

कैसे लगी योगी के नाम पर मोहर?

मैंने हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'एट द हार्ट ऑफ़ पावर, द चीफ़ मिनिस्टर्स ऑफ़ उत्तर प्रदेश' के लेखक और इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ पत्रकार श्यामलाल यादव से पूछा कि योगी को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने के पीछे वजह क्या थी?

वो बताते हैं, "पाँच नामों पर मोटे तौर पर विचार किया गया था जिनमें शामिल थे योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य, लक्ष्मीकांत वाजपेयी, मनोज सिन्हा और दिनेश शर्मा. 2014 के संसदीय चुनाव से ही उन्होंने अपना सोशल बेस काफ़ी बढ़ाया था. उस दृष्टि से ओबीसी और प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते केशव प्रसाद मौर्य का दावा सबसे अधिक मज़बूत बनता था."

लेकिन सोच-विचार के बाद पार्टी ने योगी को चुना. श्यामलाल कहते हैं, "मुझे लगता है कि जब उन्होंने कई समीकरणों पर ध्यान दिया तो योगी एक स्वाभाविक उम्मीदवार के तौर पर सामने आए क्योंकि वो एक बाबा थे और दूसरे उस समय बीजेपी में हार्डलाइन हिंदुत्व की तरफ़ जाने की जो कोशिश हो रही थी, उसके वे प्रतीक थे और वैचारिक रूप से आरएसएस भी उनके साथ था."

सांसदों के दल से नाम हटाया गया

वैसे योगी के क़रीबी लोगों को इसका आभास कुछ दिनों पहले हो गया था. जैसे ही 4 मार्च को उत्तर प्रदेश चुनाव के छठे चरण में गोरखपुर का चुनाव सम्पन्न हुआ योगी को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का पोर्ट ऑफ़ स्पेन जाने का न्योता मिला.

योगी की जीवनी लिखने वाले प्रवीण कुमार अपनी किताब में लिखते हैं, "भारतीय सांसदों का एक दल न्यूयॉर्क होते हुए ट्रिनिडाड की राजधानी पोर्ट ऑफ़ स्पेन जा रहा था. ट्रिनिडाड का वीज़ा तो योगी के पासपोर्ट पर लगा दिया गया लेकिन उन्हें बताया गया कि उनका नाम यात्रा करने वाले सांसदों की सूची से हटा लिया गया है. पता चला कि ऐसा प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर किया गया है."

मुख्यमंत्री बनने के कई दिनों बाद योगी ने स्वीकार किया कि उन्हें आख़िरी समय पर अपना नाम हटाए जाने पर निराशा हुई थी लेकिन उन्हें बाद में इसकी असली वजह पता चली.

तब तक राज्यों में नरेंद्र मोदी की पसंद लो-प्रोफ़ाइल मुख्यमंत्री हुआ करते थे. उनके लिए योगी के नाम पर मोहर लगाना थोड़ा असामान्य था क्योंकि वो भी उनकी ही तरह जनाधार वाले हिंदुत्ववादी नेता हैं. लेकिन उनकी उम्र और हिंदुत्व के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए आरएसएस ने भी उनके नाम पर मुहर लगा दी.

पारी की शुरुआत

उन्होंने अपनी पारी की शुरुआत 'देश में मोदी, यूपी में योगी' के नारे के साथ की थी. मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने उत्तर प्रदेश सचिवालय एनेक्सी को केसरिया रंग में रंगवा दिया.

उसके बाद उन्होंने एक अध्यादेश जारी करवाया जिसके अनुसार हर अंतरधार्मिक विवाह और धर्मांतरण के लिए कम से कम दो महीने पहले ज़िलाधिकारी की पूर्व अनुमति लेना ज़रूरी हो गया.

उन्होंने ताबड़तोड़ कई ऐसे फ़ैसले किए जिनसे उनकी हिंदुत्वादी इमेज लगातार पुख़्ता होती गई.

16 अक्तूबर, 2018 को उन्होंने इलाहाबाद ज़िले का नाम प्रयागराज और तीन हफ़्ते बाद फ़ैज़ाबाद ज़िले का नाम अयोध्या रखवा दिया.

बिजनौर में दिए भाषण में उन्होंने ऐलान किया, 'अब कोई जोधाबाई अकबर के साथ नहीं जाएगी.' योगी सरकार ने एक और नया प्रयोग किया.

सीएए प्रदर्शन के दौरान सरकारी संपत्ति को हुए नुक़सान के लिए उन्होंने उन प्रदर्शनकारियों पर जुर्माना लगाया जिन्होंने इसमें भाग लिया था.

योगी आदित्यनाथ, रिलीजन, पॉलिटिक्स एंड पावर, द अनटोल्ड' स्टोरी में शरत प्रधान और अतुल चंद्रा लिखते हैं, "मार्च, 2019 में लखनऊ पुलिस ने 57 प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू की. उन्होंने प्रदर्शनकारियों के नाम, तस्वीरें और पते सार्वजनिक स्थान पर होर्डिंग्स पर लगवाने शुरू कर दिए. उनके इन सब कामों ने उन्हें आरएसएस की आँखों का तारा बना दिया."

हालाँकि, उनके इस फ़ैसले को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने ग़लत ठहराया और मार्च 2020 में इन होर्डिंग को हटाने का आदेश देते हुए अदालत ने कहा कि इस तरह के पोस्टर लगाना नागरिकों की निजता के अधिकार का उल्लंघन है और विरोध प्रदर्शन करना लोगों का संवैधानिक अधिकार है.

योगी को हटाने की नाकाम मुहिम

श्यामलाल यादव ने अपनी किताब में लिखा है कि 2022 विधानसभा चुनाव से पहले एक समय आया जब केंद्र ने क़रीब-क़रीब उन्हें हटाने का मन बना लिया था लेकिन वो इसे रोकने में कामयाब हो गए.

श्यामलाल यादव बताते हैं, "ये लगभग तय हो गया था कि योगी को हटाया जा रहा है. विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ नौ महीने शेष रह गए थे. उप-मुख्यमंत्री मौर्य से उनके टकराव की ख़बरें आ रही थीं लेकिन तभी आरएसएस नेताओं के हस्तक्षेप के बाद योगी अचानक मौर्य के घर पहुंचे. उस समय तक योगी की लोकप्रियता पार्टी से भी ऊपर पहुंच चुकी थी और उनको दूसरे राज्यों से भी प्रचार करने के लिए बुलाया जा रहा था."

श्यामलाल कहते हैं, "आकलन के बाद पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को लगा कि योगी को हटाने का यह सही समय नहीं है. इस मामले का पटापेक्ष तब हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी की लखनऊ में मुलाक़ात हुई. योगी ने मोदी के साथ अपनी एक तस्वीर ट्वीट की जिसमें पीएम का हाथ उनके कंधे पर है. उन्होंने लिखा, 'हम निकल पड़े हैं प्रण करके, अपना तन मन अर्पण करके, ज़िद है एक सूर्य उगाना है, अंबर से ऊपर जाना है'."

उसके बाद 2022 का चुनाव योगी के नेतृत्व में लड़ा गया जिसमें बीजेपी की जीत हुई.

बुलडोज़र और एनकाउंटर

2022 के विधानसभा चुनाव में योगी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर उत्तर प्रदेश में विजयी हुई. मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने क़ानून और व्यवस्था और अपराधियों पर क्रैक डाउन को अपनी पहचान से जोड़ा.

इसी के तहत इलाहाबाद के अतीक़ अहमद, ग़ाज़ीपुर के मुख़्तार अंसारी और भदोई के विजय मिश्रा को निशाने पर लिया गया. राज्य की शब्दावली में 'बुलडोज़र' और 'एनकाउंटर' नए की-वर्ड्स के तौर पर उभरे. उनकी सरकार ने रामपुर के प्रमुख समाजवादी पार्टी नेता आज़म ख़ाँ के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई की.

बुलडोज़र योगी की पहचान से जुड़ गया और बीजेपी शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्री भी योगी के नक़्शे क़दम पर चले.

श्यामलाल यादव बताते हैं, "चौधरी चरण सिंह के ज़माने से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और मुसलमानों का गठजोड़ बहुत मज़बूत रहा है. लेकिन 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर दंगों की वजह से वो टूट गया. योगी ने सीएए के प्रदर्शनकारियों की प्रॉपर्टी सीज़ करने की जो बात की उसका उन्हें अपने समर्थक वर्ग में बहुत फ़ायदा हुआ. उनके ये क़दम उनको पार्टी के वोटर के और नज़दीक ले गए और इसका फ़ायदा उन्हें चुनाव में मिला."

उत्तर प्रदेश के इतिहास में वो पहले मुख्यमंत्री बने जिन्होंने न सिर्फ़ अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया बल्कि उन्हें अगले कार्यकाल के लिए दोबारा मुख्यमंत्री चुना गया.

पार्टी में उनका कद बढ़ा और उन्हें राष्ट्रीय स्तर के नेता के तौर पर देखा जाने लगा. हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के मुख्य प्रचारक की भूमिका निभाई लेकिन परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं आया.

केंद्रीय नेतृत्व के साथ खींचतान

ऐसी चर्चाएँ तेज़ होने लगीं कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और योगी आदित्यनाथ के रिश्तों की तल्ख़ी एक बार फिर उभर रही है.

मैंने राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे से पूछा कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी के फीके प्रदर्शन के लिए योगी आदित्यनाथ को किस हद तक उत्तरदायी ठहराया जा सकता है ?

उनका कहना था, "योगी आदित्यनाथ की भूमिका की समीक्षा तभी की जा सकती है जब उनके पास कोई ज़िम्मेदारी होती. इस लोकसभा चुनाव को पूरी तरह से बीजेपी की आलाकमान कंट्रोल कर रही थी. चुनाव की पूरी बागडोर अमित शाह के हाथ में थी. सारे टिकट भी उन्हीं की मर्ज़ी से दिए गए. एक एक चुनाव क्षेत्र का प्रबंधन अमित शाह ख़ुद कर रहे थे."

दुबे कहते हैं, "योगी का काम सिर्फ़ इतना था कि यूपी में घूम-घूम कर एक स्टार प्रचारक के रूप में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने वाले भाषण दें जो उन्होंने बख़ूबी किया. उनको जो ज़िम्मेदारी दी गई थी उसका उन्होंने पूरा पालन किया इसलिए उनको इस हार का ज़िम्मेदार ठहराया ही नहीं जा सकता. अगर कोई योगी पर इस हार की ज़िम्मेदारी डालने की कोशिश कर रहा है तो वो साज़िशन ही है."

क्या योगी को दरकिनार किया जाएगा?

केंद्र में सरकार बनाने के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम को बीजेपी नेतृत्व के लिए पचाना मुश्किल हो गया. ख़ासतौर से तब जब यूपी से सटे हुए राज्यों जैसे उत्तराखंड, बिहार, मध्य प्रदेश और दिल्ली में बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन किया.

2019 के संसदीय चुनाव और 2022 के विधानसभा चुनाव में ज़बरदस्त सफलता के बाद कुछ हल्कों में योगी आदित्यनाथ के लिए राष्ट्रीय भूमिका की संभावनाओं पर मंथन होने लगा था और उन्हें अगली पीढ़ी के बीजेपी नेता के तौर पर देखा जाने लगा था. लेकिन क्या ताज़ा लोकसभा चुनाव के परिणाम से इन संभावनाओं पर विराम लग गया है?